बानू मुश्ताक : मैसूर दशहरा में हिंदू आस्था पर राजनीतिक प्रहार

भारत की सबसे बड़ी पहचान उसकी सांस्कृतिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता है। यहां सहअस्तित्व की परंपरा सदियों से रही है। किंतु इस परंपरा का लाभ उठाकर तुष्टिकरण की राजनीति ने भारतीय समाज को भीतर से कितना कमजोर किया है, इसका उदाहरण एक बार फिर कर्नाटक से सामने आया है। हाल ही में कर्नाटक के मैसूर दशहरा महोत्सव में घटित प्रकरण देखा जा सकता है।

22 सितंबर 2025, सोमवार को नवरात्रि का प्रारंभ हुआ। यह वह समय था जब देशभर के मंदिरों में कलश स्थापना और देवी की पूजा-अर्चना की जा रही थी। किंतु इसी दिन कांग्रेस शासित कर्नाटक में कहीं ऐसा भी कुछ घट रहा था जो लाखों हिंदुओं की आस्था को आहत पहुंचा रहा था। मैसूर का विश्व प्रसिद्ध दशहरा महोत्सव, जिसकी शुरुआत माँ चामुंडेश्वरी मंदिर से होती है, इस बार बानू मुश्ताक नामक मुस्लिम लेखिका के हाथों सम्‍पन्न कराया गया। उन्होंने मंदिर में प्रवेश कर देवी की मूर्ति पर पुष्प अर्पित किए और अनुष्ठान की औपचारिक शुरुआत की।

पहली नजर में यह शायद समावेशिता और धार्मिक सौहार्द का प्रयास लगे, लेकिन इसकी हकीकत वस्तुतः हिंदू आस्था पर सीधा प्रहार है। क्योंकि बानू मुश्ताक न केवल इस्लामिक पृष्ठभूमि से आती हैं बल्कि वे बार-बार सार्वजनिक मंचों पर देवी-पूजा को अंधविश्वास करार देती रही हैं। उन्होंने देवी की शक्ति को नकारते हुए पूर्व के अपने कथनों में कई बार कहा है कि वास्तविक शक्ति किसी मूर्ति से नहीं, बल्कि निराकार (अल्‍लाह) से आती है। इसे आप उनका सीधे-सीधे हिंदू देवी-पूजा पर चोट करना भी मान सकते हैं।

इतना ही नहीं, उन्होंने कन्नड़ भाषा और संस्कृति पर भी सवाल उठाए हैं। कन्नड़भाषी समुदाय लंबे समय से भाषा को देवी सरस्वती से जोड़कर गर्व महसूस करता है। लेकिन बानू मुश्ताक का कथन है कि भाषा केवल संप्रेषण का माध्यम है, इसका देवी से कोई लेना-देना नहीं। इसे देवी सरस्वती की देन मानना भटकाव है। यह वक्तव्य कन्नड़भाषियों की गहरी आस्था को चोट पहुँचाने वाला तो है ही, साथ में हर उस हिन्‍दू का अपमान है, जो भाषाओं में मां सरस्‍वती का आराधन करते हैं । यही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि देवी-देवताओं की पूजा समाज को विभाजित करती है और समानता तभी संभव है जब लोग मूर्तियों से ऊपर उठकर एक ईश्वर को मानेंगे। यह दृष्टिकोण पूरी तरह इस्लामी एकेश्वरवाद का परिप्रेक्ष्य है, जो बहुदेववाद को नकारता है। स्पष्ट है कि जिन विचारों में दशहरा जैसे पर्व की आत्मा को नकारा जाता है, उन्हीं विचारों से जुड़े व्यक्ति को मुख्य अतिथि बनाना क्‍या ये हिंदू समाज की भावनाओं का अपमान नहीं है?

महिला सशक्तिकरण पर भी उनके विचार विवादित हैं। उन्होंने कहा कि महिला को शक्ति देवी दुर्गा या चामुंडेश्वरी से नहीं मिलती, बल्कि शिक्षा और अधिकारों से मिलती है। पहली नजर में यह प्रगतिशील विचार लगता है, परंतु जब इसे देवी-पूजा को नकारते हुए प्रस्तुत किया जाता है तो यह उस मानसिकता को दर्शाता है जो पारंपरिक आस्था को खारिज करने पर आमादा है। विडंबना यह है कि इस्लाम के भीतर महिला अधिकारों पर प्रश्न उठाने से वह हमेशा बचती रही हैं, लेकिन सनातन परंपरा को कटघरे में खड़ा करने से कभी नहीं चूकतीं।

अब प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसी महिला को दशहरा जैसे महोत्सव का मुख्य अतिथि क्यों बनाया गया? उत्‍तर स्‍प्‍ष्‍ट है कि यह तुष्टिकरण की राजनीति का हिस्सा है। कांग्रेस सरकार दिखा रही है कि वह अल्पसंख्यक समुदाय की प्रतिनिधि है, सरकार बानू मुश्ताक के जरिए स्‍प्‍ष्‍ट तौर पर बता रही है कि वो जो चाहे कर सकती है, बहुसंख्यक परंपराओं के केंद्र में बैठ कर उसे जो करना होगा वह करेगी और कोई उसका कुछ नहीं कर सकता । देखा जाए तो यह केवल धार्मिक तटस्थता का प्रयास नहीं, बल्कि बहुसंख्यक आस्थाओं की अवहेलना और अपमान है।

इस पूरे मामले को जब न्यायालय में चुनौती दी गई तो अदालत ने इसे “सरकारी कार्यक्रम” कहकर याचिका खारिज कर दी। सवाल यह है कि क्या सदियों से चला आ रहा एक आगमिक अनुष्ठान महज सरकारी आयोजन है? फिर तो हर बड़े आयोजन और मंदिरों में सरकार का हस्‍तक्षेप है, कल को हर कार्यक्रम में जिसमें सरकार इस तरह से करना चाहेगी, वो करेगी और हिन्‍दू सिर्फ सामने से देखता रहेगा?

कहने को यह विवाद केवल एक आयोजन का है, परंतु इसके दूरगामी निहितार्थ हैं। इससे यह संदेश गया है कि हिंदू पर्व और परंपराएँ अब राजनीतिक सौदेबाजी के लिए बिकाऊ वस्तु बन चुकी हैं। यह समाज की सांस्कृतिक अस्मिता के लिए गंभीर खतरा है। यदि आज हिंदू समाज सजग नहीं होगा, तो कल उसके मंदिर, उसकी परंपराएँ और उसकी आस्थाएँ पूरी तरह से राजनीतिक प्रयोगशाला में बदल जाएँगी। यहां यह प्रश्न भी उठता है कि क्या यह पहली बार हुआ है जब कांग्रेस ने हिंदुओं की आस्था पर प्रहार किया? बिल्कुल नहीं। अतीत में ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं जब मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए हिंदू परंपराओं को नीचा दिखाया गया। लेकिन सवाल यह है कि आखिर बार-बार कांग्रेस को यह अवसर कौन देता है? जवाब स्पष्ट है, वही हिन्‍दू जनता, जो वोट डालते समय अपनी आस्था और अस्मिता को भूल जाती है और फिर बाद में उसकी उपेक्षा पर विलाप करती है।

आज आवश्यकता है आत्ममंथन की। क्या हम अपनी परंपराओं की रक्षा के लिए खड़े होंगे या केवल सोशल मीडिया पर आक्रोश व्यक्त करके संतोष कर लेंगे? क्या हम अपने पर्वों और अनुष्ठानों को किसी सरकार या अदालत की व्याख्या पर छोड़ देंगे या स्वयं उनकी गरिमा की रक्षा करेंगे? यह प्रकरण हमें याद दिलाता है कि मंदिर, अनुष्ठान और परंपराएँ किसी सरकार या व्यक्ति की बपौती नहीं हैं। ये सदियों से चले आ रहे सांस्कृतिक-सांस्कृतिक विरासत हैं, जिनकी रक्षा का दायित्व स्वयं समाज का है। यदि हिंदू समाज स्वयं नहीं जागेगा तो आने वाले समय में भी उसकी आस्थाएँ लगातार अपमानित होती रहेंगी।

यह घटना चेतावनी है कि यदि अब भी हिंदू समाज नहीं जागा तो उसकी सांस्कृतिक अस्मिता धीरे-धीरे मिटा दी जाएगी। दोष कांग्रेस या अदालत का नहीं, दोष हमारी अपनी निष्क्रियता का होगा। हमें स्वयं अपनी परंपराओं, अपने मंदिरों और अपनी आस्थाओं की रक्षा करनी होगी, क्योंकि यह कार्य न तो कोई सरकार करेगी, न अदालत और न ही किसी अन्‍य का यह कार्य है।

डॉ. मयंक चतुर्वेदी (लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

 

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