लद्दाख, जो अब तक शांति और सौहार्द की भूमि के रूप में जाना जाता था, इस समय वह हिंसा और अशांति की लपटों में झुलस रहा है। यहां भड़की हिंसा ने पूरे देश को चौंका दिया। चार लोगों की मौत, अस्सी से अधिक घायल, तीस से ज्यादा सुरक्षाकर्मी लहूलुहान और पूरा लेह कर्फ्यू की गिरफ्त में; यह तस्वीर उस आंदोलन की है जो राज्य का दर्जा और संवैधानिक सुरक्षा पाने के लिए शुरू हुआ था, किंतु देखते ही देखते अराजकता में बदल गया। सवाल उठता है कि आखिर इस त्रासदी का जिम्मेदार कौन है?
केंद्र सरकार ने सीधे तौर पर सोशल एक्टिविस्ट सोनम वांगचुक को कटघरे में खड़ा किया है। गृह मंत्रालय का बयान है कि वांगचुक ने भड़काऊ भाषण दिए, अरब स्प्रिंग और नेपाल के जेन-जी आंदोलन का हवाला देकर युवाओं को गुमराह किया और भीड़ को हिंसा की ओर मोड़ दिया। वांगचुक ने जिस मांग को लेकर 10 सितंबर से भूख हड़ताल शुरू की थी, उस पर उच्चाधिकार प्राप्त समिति पहले से ही चर्चा कर रही थी। आरक्षण बढ़ाने से लेकर नौकरियों की भर्ती और भाषाओं को मान्यता देने तक कई फैसले इसी बातचीत के जरिए लिए गए और जो शेष थे वे लिए जा रहे थे, फिर भी आंदोलनकारी धैर्य रखने को तैयार नहीं रख सके।
सोनम वांगचुक ने इन्हीं मांगों को लेकर अनशन शुरू किया था। पंद्रह दिनों तक भूख हड़ताल पर रहकर उन्होंने पूरे देश का ध्यान लद्दाख की ओर खींचा। पर यह क्या, हिंसा भड़कने के ठीक उसी दिन उन्होंने उपवास तोड़ दिया और भीड़ को काबू करने की बजाय एम्बुलेंस से गांव लौट गए। साफ दिखा कि कैसे वांगचुक ने स्थिति संभालने की कोई कोशिश नहीं की। इसके उलट उन्होंने युवाओं के गुस्से को और हवा दी। परिणाम बहुत दुखद हैं, आज लेह में हिंसा के बाद कर्फ्यू लगा दिया गया है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 163 लागू कर दी गई है। वास्तव में यह स्थिति केवल कानून व्यवस्था का संकट नहीं, बल्कि लद्दाख की राजनीति और भारत के संघीय ढांचे के लिए गहरी चुनौती है।
आरोप कांग्रेस पर भी हिंसा भड़का कर लाभ लेने के लग रहे हैं। लेह के उपराज्यपाल कविंदर गुप्ता ने भी कहा कि इस आंदोलन में साजिश की गंध आती है और बाहरी लोग भी इसमें शामिल हो सकते हैं। देखा जाए तो ये घटना हमें एक बार फिर याद दिलाती है कि अराजकता और हिंसा से किसी का भला नहीं होता। आंदोलन की मांगें चाहे कितनी भी जायज हों, लेकिन अगर वे हिंसा के रास्ते से पूरी करने की कोशिश की जाए तो केवल खून-खराबा ही हाथ लगता है। जिस कांग्रेस और सोनम वांगचुक पर इस हिंसा को शह देने के आरोप लग रहे हैं, उन्हें क्या यह समझ नहीं आता कि महात्मा गांधी की तस्वीर लगा लेने से काम नहीं चलता, उन्होंने जो कहा है, जरूरत उस को व्यवहार में लाने की है।
कहना होगा कि ये गांधीजी के कहे पर अमल करते तो आज लद्दाख में ये अराजक हिंसात्मक स्थिति पैदा नहीं होती। महात्मा गांधी का कथन है, “साधन और साध्य दोनों शुद्ध होने चाहिए।” अगर लद्दाख के लोगों की मांग सही है तो उसे शांतिपूर्ण और संवैधानिक रास्ते से ही हासिल किया जाना चाहिए। हिंसा से केवल पर्यटन और रोजगार को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। समाज को विभाजित करके देश के भीतर बैठे दुश्मनों को और सीमाओं पर बैठे दुश्मनों को अवसर देने का ही काम किया जा रहा है।
केंद्र सरकार का यहां कहीं पक्ष अनुचित नजर नहीं आ रहा है, वह लद्दाख की जनता को संवैधानिक सुरक्षा देने के लिए प्रतिबद्ध दिखती है। उसने नए जिलों के गठन से लेकर आरक्षण, भाषा और नौकरियों पर कई कदम उठाए हैं। यह भी सच है कि राज्य का दर्जा और छठी अनुसूची में शामिल होने की मांग पर ठोस निर्णय लिए जाने के लिए बातचीत चल रही है। उच्चाधिकार प्राप्त समिति की अगली बैठक 6 अक्टूबर को दिल्ली में होनी है। पर सवाल है कि क्या 24 सितंबर की हिंसा के बाद अब संवाद का माहौल बचा रहेगा? निश्चित ही इस हिंसा ने राज्य और केंद्र के बीच के संवाद को एक गहरी चोट दी है। चार परिवारों ने अपने अपनों को खो दिया है। यह नुकसान किसी राजनीतिक लाभ या नारे से पूरा नहीं हो सकता। सरकार कहे कि यह भीड़ की गलती थी, आंदोलनकारी कहें कि यह सरकार की लापरवाही थी, लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों पक्षों ने जिम्मेदारी निभाने में कमी की। आंदोलनकारी नेताओं ने लोगों की भावनाओं को संभालने के बजाय उन्हें भड़काने का काम किया है।
आज जरूरत इस बात की है कि लद्दाख को फिर से विश्वास और शांति की राह पर लौटाया जाए। हिंसा की लद्दाख की आग ने पूरे देश को झकझोर दिया है। बांगचुक जैसे नेता चाहे यह सोचकर खुश हों कि उन्होंने सत्ता को हिला दिया, लेकिन सत्ता को हिलाने का गर्व उन चार निर्दोष जानों की कीमत पर कभी उचित नहीं ठहराया जा सकता। हिंसा ने आंदोलन की नैतिकता को कमजोर किया है। आंदोलन का उद्देश्य था अधिकार पाना, लेकिन परिणाम हुआ अराजकता और मौतें। यह स्थिति किसी भी जिम्मेदार नागरिक को स्वीकार्य नहीं हो सकती। इसलिए आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि जिम्मेदारी तय हो, दोषियों को सजा मिले।
हम यह तय करें कि देश को कमजोर करने वाले और समाज को हिंसा की ओर धकेलने वाले किसी भी व्यक्ति या संगठन को समर्थन नहीं दिया जाएगा। अराजकता से केवल दुश्मनों का भला होता है, जनता का नहीं। भारत की ताकत उसकी विविधता, लोकतंत्र और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में है। अगर हम इन मूल्यों को छोड़ देंगे तो न लद्दाख सुरक्षित रहेगा, न देश। अब जबकि हालात बिगड़ चुके हैं, केंद्र और लद्दाख के नेतृत्व दोनों को आत्ममंथन करना चाहिए। सरकार को चाहिए कि संवाद में तेजी लाए, भरोसा बहाल करे और जो भी संवैधानिक रास्ते हैं उनका इस्तेमाल कर जनता की चिंताओं को दूर करे।
दूसरी ओर आंदोलनकारी नेतृत्व को समझना होगा कि हिंसा से न तो राज्य का दर्जा मिलेगा, न छठी अनुसूची का लाभ। वह केवल खून और राख छोड़ जाएगी। असहमति लोकतंत्र में स्वाभाविक है लेकिन अगर असहमति हिंसा में बदल जाए तो लोकतंत्र कमजोर हो जाता है, यह बात आज सभी को समझने की जरूरत है। यह केवल लद्दाख का संकट नहीं बल्कि पूरे भारत के लिए चेतावनी है। आज हमें यह संकल्प लेना होगा कि चाहे कोई भी असहमति हो, चाहे मांग कितनी भी बड़ी क्यों न हो, उसे शांति और संवैधानिक रास्ते से ही पूरा किया जाएगा। यही लोकतंत्र की असली ताकत है।
डॉ. मयंक चतुर्वेदी (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)