25 सितंबर केवल एक तारीख नहीं है। यह भारत के लिए आत्ममंथन, स्मरण और संकल्प का दिन है। यह उस युगपुरुष की जयंती है, जिसने भारतीय राजनीति को आत्मा दी और इसे सत्ता की होड़ से उठाकर सेवा का पवित्र अनुशासन बनाया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक विचारक, दार्शनिक और दूरदृष्टा थे, जिनके सिद्धांत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके समय में थे। जैसे-जैसे भारत 2047 में अपनी स्वतंत्रता की शताब्दी की ओर अग्रसर हो रहा है, उनके एकात्म मानववाद, अंत्योदय और स्वदेशी के विचार हमारे मार्ग को प्रकाशित कर रहे हैं। ये केवल सैद्धांतिक अवधारणाएँ नहीं, बल्कि भारत की यात्रा को आकार देने वाली जीवंत शक्तियाँ हैं—एक ऐसा भारत जो आत्मनिर्भर, समावेशी और सांस्कृतिक रूप से प्रदीप्त हो।
1916 में उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव नगला चंद्रभान में जन्मे दीनदयाल का जीवन लचीलापन और बलिदान का प्रतीक है। बचपन में ही माता-पिता को खो देने के बावजूद उन्होंने निराशा को कभी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। कठिनाइयों ने उनके चरित्र को निखारा और उनकी सादगी, तपस्या तथा सेवा भाव ने उन्हें एक ऐसा नेता बनाया जिसकी प्रामाणिकता हर किसी को छूती थी। उन्होंने कभी भौतिक संपदा या विशेषाधिकार की खोज नहीं की; उनका जीवन राष्ट्र सेवा के लिए समर्पित था। उनका व्यक्तिगत संघर्ष उनकी विचारधारा को और भी विश्वसनीय बनाता है, क्योंकि उन्होंने जो उपदेश दिया, उसे स्वयं जिया। उनके लिए नेतृत्व कोई वंशानुगत अधिकार नहीं था; यह अनुशासन, समर्पण और त्याग का परिणाम था।
दीनदयाल की विचारधारा का केंद्र था एकात्म मानववाद—एक ऐसा दर्शन जो पूँजीवाद और साम्यवाद की संकीर्ण सीमाओं से परे था। उस दौर में, जब विश्व इन दो विचारधाराओं के बीच बँटा हुआ था और मनुष्य को केवल एक उपभोक्ता या श्रमिक के रूप में देखा जाता था, दीनदयाल जी ने भारतीय सभ्यता की प्राचीन बुद्धिमत्ता से प्रेरित एक समग्र विकल्प प्रस्तुत किया। एकात्म मानववाद में मनुष्य को केवल आर्थिक इकाई नहीं, बल्कि शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का समन्वय माना गया। विकास को केवल भौतिक समृद्धि तक सीमित नहीं किया जा सकता; इसमें मानवीय गरिमा, आध्यात्मिक पूर्णता और सामाजिक कर्तव्यों का समावेश होना चाहिए। उनके लिए राष्ट्र कोई भौगोलिक इकाई या व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं था, बल्कि सदियों की संचित सांस्कृतिक चेतना था। राजनीति, उनके विचार में, सत्ता की लड़ाई नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन और मानवीय उत्थान का साधन थी। आज, जब विश्व भौतिकवाद की सीमाओं, जलवायु परिवर्तन, सामाजिक असमानता और सांस्कृतिक अलगाव से जूझ रहा है, दीनदयाल जी का यह दर्शन और भी प्रासंगिक हो जाता है।
दीनदयाल का सबसे अमर योगदान था अंत्योदय का सिद्धांत—अंतिम पंक्ति के व्यक्ति का उत्थान। उनके लिए किसी राष्ट्र की सच्ची ताकत उसके शक्तिशाली लोगों की समृद्धि में नहीं, बल्कि उसके सबसे कमजोर नागरिक की भलाई में निहित थी। शासन का असली इम्तिहान यह है कि समाज का सबसे निर्बल व्यक्ति कैसा जीवन जीता है। अंत्योदय दान नहीं था, बल्कि न्याय था। यह केवल सहायता देने की बात नहीं थी, बल्कि सशक्तिकरण की थी। आज हम देख सकते हैं कि यह सिद्धांत भारत की शासन व्यवस्था में गहराई से समाहित हो गया है। उज्ज्वला योजना ने लाखों गरीब परिवारों की महिलाओं को स्वच्छ रसोई ईंधन उपलब्ध कराया है, आयुष्मान भारत ने असंख्य परिवारों को स्वास्थ्य सुरक्षा दी है, जन धन योजना ने बैंकिंग से वंचितों को वित्तीय व्यवस्था में जोड़ा है, जल जीवन मिशन हर घर तक स्वच्छ पानी पहुँचाने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रहा है और डिजिटल इंडिया ने इंटरनेट, डिजिटल भुगतान और ई-गवर्नेंस को देश के सबसे दूरस्थ हिस्सों तक पहुँचाकर ग्रामीण-शहरी खाई को कम किया है। ये योजनाएँ केवल नीतियाँ नहीं हैं; ये अंत्योदय की भावना का जीवंत रूप हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास” इसी सिद्धांत का आधुनिक विस्तार है।
स्वदेशी पर उनका बल भी उतना ही महत्वपूर्ण था। उनके लिए स्वदेशी केवल एक आर्थिक नारा नहीं था, बल्कि राष्ट्रीय गरिमा और आत्मनिर्भरता का प्रतीक था। स्वदेशी का अर्थ था ऐसी नीतियाँ बनाना जो भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप हों, भारत के संसाधनों का उपयोग करें और भारत की ताकत को बढ़ाएँ। यह स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को मजबूत करने, रोजगार सृजन करने और गाँवों को राष्ट्रीय समृद्धि का आधार बनाने की सोच थी। स्वदेशी का मतलब विश्व से अलगाव नहीं था, बल्कि यह सुनिश्चित करना था कि प्रगति भारत की सांस्कृतिक पहचान और सामाजिक ताने-बाने के साथ सामंजस्य में हो। आज, जब भारत मेक इन इंडिया, आत्मनिर्भर भारत अभियान और स्टार्ट-अप इंडिया की बात करता है, तो यह दीनदयाल जी की स्वदेशी दृष्टि का ही आधुनिक विस्तार है।
इन्हीं सिद्धांतों से प्रेरित होकर ग्राम्या की स्थापना हुई, जिसका नेतृत्व करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त है। ग्राम्या एक ऐसा आंदोलन है, जो अंत्योदय, एकात्म मानववाद और स्वदेशी को जमीनी स्तर पर कार्यरूप देता है। हमारा विश्वास है कि भारत का भविष्य केवल महानगरों की चमचमाती इमारतों में नहीं, बल्कि इसके गाँवों की चौपालों और खेत-खलिहानों में लिखा जाएगा। इसी उद्देश्य से ग्राम्या की हर पहल इन आदर्शों को मूर्त रूप देती है। मिशन शक्ति के माध्यम से महिलाओं को शिक्षा, आत्मरक्षा और उद्यमिता से जोड़ा गया है। मिशन अन्नपूर्णा गाँवों में पोषण और आत्मनिर्भर खाद्य प्रणालियों पर केंद्रित है। ई-पंचायत कार्यक्रम तकनीक के माध्यम से ग्रामीण शासन को पारदर्शी और सहभागी बनाता है। टीईएस मॉडल युवाओं को प्रशिक्षित कर स्वरोजगार और उद्यमिता के लिए तैयार करता है। ग्राम काउंसलर योजना स्थानीय नेतृत्व को विकसित करती है, ग्रीन विलेज पहल टिकाऊ जीवन और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देती है और स्पिरिचुअल टूरिज़्म ग्रामीण अर्थव्यवस्था को संस्कृति और आस्था से जोड़ता है।
जैसे-जैसे हम 2047 की ओर बढ़ रहे हैं, ग्राम्या एक ऐसे भारत की परिकल्पना करता है, जो आत्मनिर्भर, समावेशी और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध हो। ऐसे भारत की, जहाँ गाँव डिजिटल रूप से सशक्त हों, युवा नवाचार और उद्यमिता में अग्रणी हों, महिलाएँ निर्णय लेने में समान भागीदार हों, हरित ऊर्जा ग्रामीण जीवन को शक्ति दे और भारत की संस्कृति तथा स्वदेशी उत्पाद वैश्विक पहचान बनें।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जयंती के इस अवसर पर हमें संकल्प लेना चाहिए कि अंत्योदय, स्वदेशी और एकात्म मानववाद को अपने जीवन और कार्य का आधार बनाएँगे। यही मार्ग हमें 2047 तक एक आत्मनिर्भर, समृद्ध और विश्वगुरु भारत की ओर ले जाएगा। जैसा कि उन्होंने कहा था, “यदि हमें राष्ट्र को सशक्त बनाना है, तो हमें अपने सबसे कमजोर व्यक्ति के उत्थान को सुनिश्चित करना होगा।” यह केवल एक कथन नहीं, बल्कि हम सबके लिए एक पवित्र कर्तव्य है।
2047 तक आइए हम एक ऐसा भारत बनाएँ जो अपने अंतिम नागरिक की मुस्कान से प्रदीप्त हो—एक ऐसा भारत जो सही मायनों में आत्मनिर्भर, समृद्ध और विश्वगुरु बने। यही पंडित दीनदयाल उपाध्याय को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
डॉ. पंकज शुक्ला
चेयरमैन एवं सीएमडी – ग्राम्या | प्रेसिडेंट – ASRE | वाइस प्रेसिडेंट – कराटे एसोसिएशन ऑफ इंडिया