विजय कुमार जैन

सर्व विदित है 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी भारत की राजभाषा घोषित की गई थी और राजकाज के लिये पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी को सम्पर्क की भाषा के रूप में प्रयोग करने की स्वीकृति दी गई थी, लेकिन तब से आज तक सात दषकों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा का सम्मान नहीं मिला ।
सन्तोष का विषय है कि आधुनिक संचार क्रान्ति के नये युग में मीडिया, फिल्म जगत और उद्योग सभी क्षेत्रों में हमारी प्यारी भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार को अपेक्षाकृत बल मिला है । दक्षिण भारतीय भी हिन्दी के प्रति अब ज्यादा दुराग्रह नही रखते, मगर खेद का विषय है कि आज तक किसी भी शासनकाल में हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने सक्रिय प्रयास नही हुए हिन्दी दिवस के आयोजन मात्र औपचारिकता बन गये है।
14 सितम्बर 1949 को भारत के संविधन में हिन्दी को भारतीय गणराज्य की राष्ट्रभाषा बनाने का निर्णय लिया गया और उसी दिन की स्मृति में संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। महाकवि मैथिलीषरण गुप्त ने लिखा है ‘‘भगवान भारत वर्ष में गूंजे हमारी भारती’’ भारती से महाकवि का आषय राष्ट्रभाषा हिन्दी से है। विष्व के 180 देषों में हिन्दी बोलने और समझने बाले नही है। पिछले सैंतीस वर्षों के दौरान नौ विष्व हिन्दी सम्मेलन विष्व के अनेक नगरों में आयोजित किये गये हिन्दी लेखकों एवं कोटि के विद्धानो के आपसी सामन्जस्य से सौहार्द का बातावरण निर्मित हुआ है। विदेषों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार धीरे-धीरे गति पकड़ रहा है। माॅरीषस, फीजी, सूरीनाम, त्रिनिदाद, गुयाना, नीदरलैण्ड, दक्षिण अफ्रीका, नार्वे, वियतनाम, जापान, अमेरिका, जोहान्सवर्ग आदि देषों में ऐसी अनेक संस्थायें जो हिन्दी साहित्यकारों की जयन्ती मनाते है, राम चरित मानस और गीता का पाठ करवाते है। होली और दीवाली के अवसर पर मिलन समारोह एवं कवि सम्मेलन आयोजित करते है।
मगर दुख का विषय है कि हम विदेषों में हिन्दी की इस हलचल को देखकर खुष तो हो लेते है किन्तु इस बात पर ध्यान नही देते कि 10 से 14 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित पाॅंच दिवसीय प्रथम विष्व हिन्दी सम्मेलन में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को अधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिलाने का जो संकल्प लिया था। वह अब तक अधर में ही क्यों लटका हुआ है। चेकोस्लोवाकिया के विद्धान प्रो. ओदोलेन स्मेकल ने नागपुर में आयोजित विष्व हिन्दी सम्मेलन में कहा था देष की आत्मा को समझने के लिये उसकी भाषा को समझना चाहियेमुझे जान पड़ता है कि भारत की आत्मा को समझने के लिये संस्कृत निष्ठ हिन्दी को जानना आवष्यक है, क्योंकि वह अपने मूल रूप में संस्कृत षब्दों को आत्मसात करने के फल स्वरूप समृद्धतम वर्तमान भारत की राष्ट्र भाषा है।

भारत के संविधान के भाग 17 अध्याय 1 में भारत की राजभाषा का प्रावधान है। संविधान में संकल्प 343 में स्पष्ट उल्लेख है कि भारत की राजभाषा हिन्दी और लिपि देव नागरी होगी। भारत संघ के शासकीय प्रयोजनों के लिये अंको का रूप भारतीय अंको का अन्तर्राष्ट्रीय रूप होगा। संविधान निर्माताओं ने बड़ी चालाकी से राजभाषा हिन्दी के साथ पन्द्रह वर्ष तक यह प्रावधान भी रखा था। हिन्दी राजभाषा के रूप में संवेधानिक रूप से प्रतिष्ठित तो हो गई पर हिन्दी को नौकरषाहो ने समय से ही अपनी भाषा और संस्कृति को भारत में स्थापित करने का कार्य प्रारंभ कर दिया था। अंग्रेजों ने भारत में अपना शासन उज्जवल करने के लिये सबसे पहले अंग्रेजी को प्रषासन और शासन की भाषा बनायी। भारत में आजादी के पहले और बाद भी प्रषासकों ने अंग्रेजी को ही अपनी कार्य भाषा बनाया और हिन्दी की उपेक्षा कर उसके लिये मुष्किलें पैदा की है। आचार्य विनोबा भावे ने कहा है हिन्दी रूपी सूरज की रोषनी के बिना सवेरे की कल्पना व्यर्थ है। मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हॅूं, परन्तु मेरे देष में हिन्दी की इज्जत न हो, यह मै नही सह सकता।
निश्चित ही यह गर्व का विषय है भारत के दक्षिण प्रदेषों तमिलनाडु, आन्ध्रप्रदेष, कर्नाटक, केरल आदि में हिन्दी के व्यापक प्रचार प्रसार में साधु-सन्तों, फकीरों तथा उत्तर भारत से आये मारवाड़ी, गुजराती और मुसलमान व्यापारियों ने सराहनीय हिन्दी सेवा की है। गुजरात में जन्मे महात्मा गांधी और स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ साथ कवि श्री दयाराम का योगदान हमेषा याद रहेगा। बंगाल के कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बंकिम चंद चटर्जी और शरतचन्द्र का हिन्दी के लिये योगदान महत्वपूर्ण रहा है। भाषा और संस्कृति दोनों एक दूसरे को प्रभावित करती है। किसी भी देष का समाज जब किसी विदेषी भाषा की संस्कृति पर आसक्त होता है तो उसके आदर्ष और नैतिक मूल्य बदल जाते है। अपनी भाषा की आत्मीयता, गहन, अनुभूतियाॅं और मानवीय संबंधों का आलोक किसी भी विदेषी भाषा से प्राप्त नही हो सकता हमें विदेषी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करने का विरोधी नही होना चाहिये किन्तु हमे किसी भी स्थिति में विदेषी भाषा की संस्कृति से प्रभावित नही होना चाहिये। राष्ट्रीय चेतना के यषस्वी कवि माखन लाल चतुर्वेदी के अनुसार ‘‘हिन्दी हमारे देष की भाषा की प्रभावषाली विरासत है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुसार हिन्दी ही देष को एक सूत्र में बांध सकती है। पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने कहा है हिन्दी विष्व की महान भाषाओं में से एक है। वह करोड़ों लोगों की मातृ भाषा है और करोड़ों लोग ऐसे है जो इसे दूसरी भाषा के रूप में बोलते है।
हिन्दी की वर्तमान दषा को देखते हुए समाज को एक दिषा प्रदान करना आवष्यक है। हमे हिन्दी के संदर्भ में अपने घर से षुरूआत करना होगा। अंग्रेजी के षब्दों को नकारना होगा। बच्चों को समझाकर मम्मी-डैडी, कजिन शब्दों का प्रयोग बंद करना होगा। सामाजिक स्तर पर भी हिन्दी में परिवर्तन आवष्यक है। मोबाइल अथवा टेलीफोन पर हेलो शब्द का प्रयोग होता है जबकि प्रारंभ होना चाहिये कहिये अथवा मैं बोल रहा हॅूं आप कौन है ? अथवा नमस्कार से प्रारंभ होना चाहिये। दुकानों, षिक्षण संस्थाओं, शासकीय कार्यालयों के नाम पट हिन्दी में होना चाहिये। जलपान के समय टी के स्थान पर चाय, कोक, के स्थान पर षरबत या षिकंजी कहना चाहिये। ब्रेक फास्ट के स्थान पर अल्पाहार, लंच एवं डिनर का मध्यान्ह भोजन, रात्रि भोजन कहना चाहिये। विवाह के निमंत्रण कार्ड पूर्णतया हिन्दी में छपवाने होंगे। कितनी हास्यास्पद बात है हम भगवान गणेष का चित्र लगाते है मंगल श्लोक हिन्दी में लिखते है, किन्तु शेष सभी कार्यक्रम पति-पत्नि के नाम आदि अंग्रेजी में होते है।
केवल अंग्रेजी पुत्रों की मानसिकता बदलनी है। इसके लिये हमे पहल करनी होगी। हमे किसी से भी अंग्रेजी में पत्राचार अथवा बार्तालाप नही करना चाहिये। हम सुधर जायेंगे तो अन्य लोग हमारा अनुकरण करने लगेंगे। हमे समझना पड़ेगा कि हिन्दी का अपमान देष का अपमान, देषवासियो का अपमान भारत माता का अपमान है। उस दिन हिन्दी को लाने के लिये किसी क्रान्ति की आवष्यकता नही होगी और अगर क्रान्ति की आवष्यकता भी पड़ती है तो वह भी जनता ही करेगी। जब हम अंग्रेजी समझने से इंकार कर देंगे, जब हम अंग्रेजी पत्रों का उत्तर हिन्दी मे देना प्रारंभ कर देंगे तो सामने बाला स्वयं ही हिन्दी अपनाने विवश हो जायेगा।

 

लेखक स्वतंत्र पत्रकार है मोबा. 9425137456


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