विजय कुमार जैन राघौगढ़ म. प्र.

भारतीय संस्कृति के अनुसार व्यक्ति के जीवन में सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है, इनमें एक पाणिग्रहण संस्कार है। वर्तमान में हमने पाणिग्रहण संस्कार को शुभ विवाह का नाम दे दिया है। आज शुभ विवाह के नाम पर इसमें अनेक कुप्रथाओं ने प्रवेश कर लिया है। हम प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करते हुए शुभ विवाह में दिखावे के नाम पर फिजूल खर्ची कर रहे हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि अमीरों के चक्कर में बेचारा गरीब पीस रहा है। प्री बैडिंग सूट, विवाह में पंगत आयोजित कर दौना पत्तल में भोजन कराने की प्राचीन परंपरा को हम भूल गए हैं। पंगत के स्थान पर स्वरुचि भोज आयोजित होने लगा है। प्लेट में आयटम लेकर खड़े-खड़े भोजन करते हैं। वैभव प्रदर्शन के नाम पर स्वरुचि भोज में पचास से लेकर सौ आयटम बनाते हैं। हजारों लाखों रुपए के भोजन की बर्बादी हो रही है। रात्री में महिला संगीत का आयोजन किया जाता है। महिला संगीत में महिलाओं द्वारा फिल्मी गानों पर डांस किया जाता है। महिला संगीत में मर्यादा तार तार हो रही है।आजकल ग्रामीण परिवेश में होने वाली शादियों में एक नई रश्म का जन्म हुआ है हल्दी रश्म, हल्दी रश्म के दौरान हजारों रुपए खर्च करके विशेष डेकोरेशन किया जाता है उस दिन दूल्हा या दुल्हन विशेष पीले वस्त्र धारण करते हैं लगभग 2020 से पूर्व इस हल्दी रश्म का प्रचलन ग्रामीण क्षेत्रों में कहीं पर भी देखने को नहीं मिलता था। लेकिन पिछले दो-तीन साल में इसका प्रचलन बहुत तेजी से ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ा है।

पहले हल्दी रश्म के पीछे कोई दिखावा नहीं होता था, बल्कि तार्किकता होती थी। पहले ग्रामीण क्षेत्रों में आज की तरह साबुन व शैंपू नहीं थे और ना ही ब्यूटी पार्लर थे इसलिए हल्दी की उबटन घिस-घिस कर दूल्हे दुल्हन के चेहरे व शरीर से मृत चमड़ी और मैल को हटाने, चेहरे को मुलायम और चमकदार बनाने के लिए हल्दी, चंदन, आटा, दूध से तैयार उबटन का प्रयोग करते थे। ताकि दूल्हा-दुल्हन सुंदर लगे। इस काम की जिम्मेदारी घर परिवार की महिलाओं की थी। लेकिन आजकल की हल्दी रस्म मोडिफाइड, दिखावटी और महंगी हो गई है। जिसमें हजारों रुपए खर्च कर डेकोरेशन किया जाता है। महंगे पीले वस्त्र पहने जाते हैं दूल्हा दुल्हन के घर जाता है और पूरे वातावरण कार्यक्रम को पीतांबरी बनाने के भरसक प्रयास किए जाते हैं। शुभ विवाह में सभी परिजन रिस्तेदारो पुरुष एवं महिलाएं भी पीले वस्त्र पहनते हैं।यह पीला ड्रामा घर के मुखिया के माथे पर तनाव की लकीरें खींचता है। जिससे चिंता में पसीना टपकता है। हल्दी रश्म की तरह ही मेंहदी रश्म के आयोजन में वैभव प्रदर्शन के नाम पर भारी फिजूलखर्ची हो रही है। पुराने समय में जहां कच्ची छतों के नीचे पक्के इरादों के साथ दूल्हा दुल्हन बिना किसी दिखावे के फेरे लेकर अपना जीवन आनंद के साथ शुरू करते थे। लेकिन आज पक्के इरादे कम और दिखावा और बनावटी पन ज्यादा होने लगा है। आजकल देखने में आ रहा है कि ग्रामीण क्षेत्र में आर्थिक रूप से अक्षम परिवार के लड़के भी इस शहरी बनावटी पन में शामिल होकर परिवार पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ा रहे हैं। क्योंकि उन्हें अपने छुटभैये नेताओं, वन साइड हेयर कटिंग वाले या लंबे बालों वाले सिगरेट का धुआं उड़ाते दोस्तों को अपना ठसका दिखाना होता है। इंस्टाग्राम, फेसबुक आदि के लिए रील बनानी है।

बेटे के रील बनाने के चक्कर में बाप की कर्ज उतारने में ही रील बन जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे घरों में फिजूल खर्ची मैं पैसा पानी की तरह बहाया जाता है।जिनके मां-बाप ने हाड़- तोड़ मेहनत और पसीने की कमाई से पाई पाई जोड़कर मकान का ढांचा तैयार किया, लेकिन यह नवयौवन लड़के लड़कियां बिना समझे अपने मां-बाप की हैसियत से विपरीत जाकर अनावश्यक खर्च करते हैं। जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति नहीं है उन परिवारों के बच्चों को मां-बाप से जिद करके इस तरह के फिजूल खर्ची नहीं करवानी चाहिए। आजकल काफी जगह यह भी देखने को मिलता है कि बच्चे जिनकी शादी है मां-बाप से कहते हैं आप कुछ नहीं जानते आपको समझ नहीं है, आपकी सोच वही पुरानी अनपढ़ों वाली रहेगी। यह कहते हुए अपने माता-पिता को गबांरू पिछड़ा कहते हैं। मैं जब भी यह सुनता हूं सोचने को विवश हो जाता हूं, पांव अस्थिर हो जाते हैं बड़ी चिंता होती है कि मेरा युवा छोटा भाई बहन या बेटा-बेटी किस दिशा में जा रहे हैं इस तरह की फिजूलखर्ची बाली रश्मों को रोकने के समाचार पढ़कर खुशी होती है लेकिन अपने घर परिवार समाज गांव में ऐसे कार्यक्रम में शरीक होकर लुत्फ लोग तो उठा रहे हैं। फोटो खिचवा कर स्टेटस लगा रहे हैं।


नोट -लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष हैं।

 


इस खबर को शेयर करें


Comments