कृष्णमोहन झा

आगामी लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कड़ी चुनौती देने के इरादे से देश के दो दर्जन से अधिक विपक्षी दलों ने कुछ महीने पहले ही एकजुट होकर एक संयुक्त मोर्चा बनाया था जिसे उन्होंने इंडिया नाम दिया था। इंडिया गठबंधन के बैनर तले सभी विपक्षी दलों ने बड़ी बड़ी कसमें खाईं थी‌ कि अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा को परास्त किये बिना चैन से नहीं बैठेंगे। गठबंधन की एकाधिक बैठकों से ऐसा प्रतीत होने लगा था कि सचमुच में यह गठबंधन अगले चुनावों में भाजपा को मुश्किल में डाल सकता है परन्तु धीरे-धीरे इस गठबंधन के प्रमुख घटक दलों के सर्वेसर्वा नेताओं ने मोदी सरकार पर निशाना साधने के बजाय एक दूसरे पर निशाना साधना शुरू कर दिया और यह भी साबित कर दिया कि गठबंधन के बैनर तले चुनाव लड़कर वे अपने राज्य में अपनी पहचान खोने के लिए कतई तैयार नहीं हो सकते। अब जबकि, आगामी लोकसभा चुनावों के लिए तीन माह से कम समय शेष बचा है, इंडिया गठबंधन मानों अपना अस्तित्व ही खो चुका है। अब स्थिति यह है कि भाजपा को केंद्र की सत्ता से हटा देने का दिवा स्वप्न देखने वाले विपक्षी दलों ने ही भाजपा की राह पिछले लोकसभा चुनावों से भी ज्यादा आसान कर दी है और अब तो इन विपक्षी दलों को यह आशंका सताने लगी है कि इस बार वे पिछले चुनावों जैसा प्रदर्शन करने में भी सफल नहीं हो पाएंगे।

आश्चर्यजनक की बात तो यह है कि जिन नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों को एक जुट करने की पहल की थी वही इंडिया गठबंधन से नाता तोड़ने में सबसे आगे रहे। यह भी क्या कम हास्यास्पद बात है कि नीतीश कुमार पहले इंडिया गठबंधन के वरिष्ठ नेता के रूप में भाजपा पर निशाना साध रहे थे और भाजपा की शरण में जाने के बाद इंडिया गठबंधन के घटक दल उनके निशाने पर आ गए हैं। दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी ने लोकसभा की 6 सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित कर न केवल कांग्रेस बल्कि इंडिया गठबंधन को बड़ा झटका दिया है जबकि कांग्रेस यह चाहती थी कि आम आदमी पार्टी दिल्ली की आधी सीटें उसके लिए छोड़ दे। कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के वरिष्ठ नेता फारुख अब्दुल्ला ने भी घोषणा कर दी है कि उनकी पार्टी जम्मू कश्मीर में आगामी लोकसभा चुनाव अपने दम पर लड़ेगी। बात यहां तक सीमित नहीं है। उन्होंने यह भी कह दिया है कि अगर प्रधानमंत्री मोदी उन्हें बुलाएंगे तो वे उनसे मिलने दिल्ली जरूर जाएंगे। जब फारुख अब्दुल्ला यह कहते हैं कि सभी तरह की संभावनाओं के द्वार खुले हैं तो उसका संकेत यही है कि वे नीतीश कुमार की राह पर चलने के लिए तैयार हैं।

उधर पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस सरकार की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कांग्रेस को दंश देने के लिए वह दिन चुना जिसके एक दिन बाद ही राहुल गांधी की न्याय यात्रा असम से पश्चिम बंगाल की सीमा में प्रवेश करने वाली थी। उन्होंने भी पश्चिम बंगाल की सभी लोकसभा सीटों पर तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा कर दी। ममता बनर्जी की यह घोषणा कांग्रेस के लिए यह बहुत बड़ा झटका थी। ममता बनर्जी की इस घोषणा ने कांग्रेस को हक्का बक्का कर दिया। ममता बनर्जी ने पार्टी के इस फैसले की वजह यह बताई कि कांग्रेस पार्टी ने पश्चिम बंगाल में राहुल गांधी की न्याय यात्रा का कार्य क्र‌‌‌म उनके साथ साझा नहीं किया जबकि इंडिया गठबंधन के सदस्य होने के नाते उनसे यह जानकारी साझा की जानी चाहिए थी। ऐसा प्रतीत होता है कि ममता बनर्जी को कांग्रेस से दूरी बनाने के लिए किसी बहाने की तलाश थी जो कांग्रेस ने ही उन्हें उपलब्ध करा दिया। अरविंद केजरीवाल हों या ममता बनर्जी या फिर फारुख अब्दुल्ला, इन सभी नेताओं ने कांग्रेस को परोक्ष रूप से यही संदेश दिया है कि उनकी पार्टी का जिस राज्य में वर्चस्व है कि वहां कांग्रेस के साथ सीट शेयरिंग अपनी शर्तों पर ही करेंगे।

इसी क्रम में पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने स्पष्ट घोषणा कर दी है कि आम आदमी पार्टी आगामी लोकसभा चुनावों में राज्य की सभी 13 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी। उधर उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भी राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से अधिकतम 17 सीटों पर कांग्रेस के साथ समझौता करने के लिए तैयार है। यही नहीं, समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अमेठी में राहुल गांधी की न्याय यात्रा में शामिल न होने का फैसला किया है और समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी‌ राहुल गांधी की न्याय यात्रा से दूरी बनाने के निर्देश दिए गए हैं।

समाजवादी पार्टी ने स्पष्ट कर दिया है कि लोकसभा चुनावों के लिए दोनों दलों के बीच सीट शेयरिंग पर कोई फैसला हुए बिना वह राहुल गांधी की न्याय यात्रा का हिस्सा नहीं बनेगी। उल्लेखनीय के गत वर्षांत में मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनावों में भी कांग्रेस के उसकी सहमति नहीं बन पाई थी। दरअसल कांग्रेस पार्टी अधिकांश राज्यों में विपक्षी दलों को यह एहसास कराने में असफल रही है कि कांग्रेस के साथ चुनावी समझौता कर लेने पर ही आगामी लोकसभा चुनावों में उनकी जीत की संभावनाएं बलवती हो सकती हैं। इंडिया गठबंधन के घटक दलों द्वारा कांग्रेस से दूरी बनाने का एक बड़ा कारण गत वर्षांत में संपन्न देश के पांच राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की वह शोचनीय पराजय है जिसने उसके कार्यकर्ताओं ही नेताओं के मनोबल को भी तोड़ कर रख दिया है। अगर इन तीन राज्यों में उसे शानदार सफलता मिली होती तो इंडिया गठबंधन में उसका वर्चस्व कायम रह सकता था और आज उसके जो बड़े बड़े नेता भाजपा के द्वार खटखटा रहे हैं उनके मन में यह एहसास बना रहता कि कांग्रेस में ही उनका भविष्य सुरक्षित है। अभी हाल में ही महाराष्ट्र के भूतपूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण ने कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल होने का जो फैसला किया उसके पीछे भी यही कारण माना जा सकता है कि महाराष्ट्र की राजनीति में कांग्रेस धीरे धीरे हाशिए पर पहुंचती जा रही है।

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और उद्धव ठाकरे की शिव सेना का भी कांग्रेस से मोहभंग हो चुका है। बिहार की बात करें तो वहां भी राष्ट्रीय जनता दल की शर्तों पर ही उसके साथ कांग्रेस की दोस्ती बनी रह सकती है। फिलहाल,कांग्रेस के लिए यह राहत की बात हो सकती है कि हाल में ही मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और उनके बेटे नकुल नाथ के भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होने की जो चर्चाएं चल पड़ी थीं उन पर विराम लग गया है। इसके पीछे कारण चाहे जो रहे हों लेकिन इतना तो तय है कि अगर कमलनाथ वाकई भाजपा में शामिल हो जाते तो कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश में यह बड़ा झटका साबित होता क्योंकि सुनने में यह आ रहा था कि कमलनाथ के कांग्रेस छोड़ने के बाद कुछ कांग्रेस विधायक और वरिष्ठ नेता भी पार्टी छोड़ सकते थे। पंजाब के आनंद पुर साहिब सीट से कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी के भी कांग्रेस छोड़ने की अफवाह फैल चुकी है यद्यपि उनके कार्यालय ने इन अफवाहों का खंडन कर दिया है।

गौरतलब है कि मनीष तिवारी भी अतीत में कांग्रेस पार्टी में पूर्ण कालिक अध्यक्ष के लिए चुनाव कराए जाने की मांग कर चुके हैं। कुल मिलाकर, लोकसभा चुनाव की घोषणा होने के पूर्व ही कांग्रेस को रोजाना ही नयी नयी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का भी भाजपा के प्रति बढ़ता आकर्षण न केवल कांग्रेस के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है बल्कि राहुल गांधी की न्याय यात्रा की चमक को भी फीका कर रहा है।


नोट - लेखक राजनैतिक विश्लेषक है।

 


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