कृष्णमोहन झा


आज गुरु -शिष्य परंपरा का पुनीत पर्व गुरु पूर्णिमा है । गुरु के समक्ष विनयावनत होकर उनके प्रति अटूट श्रद्धा और आदर की अभिव्यक्ति का यह पुनीत पर्व आज सारे देश में मनाया जा रहा है। धर्मग्रंथों के अनुसार गुरु पूर्णिमा को ही भगवान शिव ने दक्षिणामूर्ति के रूप में ब्रह्मा के चार मानस पुत्रों को वेदों का ज्ञान प्रदान किया था। महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास का जन्म भी गुरु पूर्णिमा को हुआ था। बौद्ध धर्म की मान्यताओं के अनुसार गुरु पूर्णिमा के दिन ही सारनाथ में अपने शिष्यों को प्रथम उपदेश दिया था। गुरु पूर्णिमा को धर्मचक्र का प्रवर्तन हुआ। धर्मग्रंथों में गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, शिव और परब्रह्म कहा गया है। ध्यान का मूल गुरु की मूर्ति में है, पूजा का मूल गुरु के चरणों में है , मंत्र का मूल गुरु के शब्दों में है और गुरु की कृपा हो जाए तो मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो सकता ।गुरु ही अपने शिष्य को ईश्वर का ज्ञान कराता है। गुरु की कृपा के बिना जीवन की सार्थकता अकल्पनीय है । किसी शिष्य के पास सब कुछ होने के बाद भी अगर उसे गुरु कृपा की आकांक्षा नहीं है तो उसे अपने जीवन में पूर्णता की अनुभूति नहीं हो सकती। संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने अपनी सफलता का श्रेय गुरु को दिया है।सम्राट चंद्रगुप्त ने आचार्य चाणक्य, शिवाजी महाराज ने समर्थ गुरु रामदास , और स्वामी विवेकानन्द ने रामकृष्ण परमहंस का शिष्य बन कर ही अखिल विश्व में अपार यश और कीर्ति अर्जित की। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है।गुरु के अंदर मनुष्य को ईश्वर से जोड़ने की सामर्थ्य होती है। गुरु ही अपने शिष्य का ईश्वर से साक्षात्कार कराता है इसीलिए कहा गया है कि
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े , काके लागूं पाय ,
बलिहारी गुरु आपकी गोविंद दियो बताय।
गुरु जीवन भर मनुष्य को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। गुरु के बिना मनुष्य अपने जीवन में पूर्णता की अनुभूति नहीं कर सकता। गुरु अपने शिष्यों को ग़लत मार्ग पर चलने से रोकता है। गुरु अपने शिष्य पर आई विपत्ति को अपने ऊपर लेकर उसके जीवन को निरापद बना देता है लेकिन शर्त केवल यही है कि गुरु के प्रति शिष्य की श्रद्धा और विश्वास अटूट होना चाहिए। शिष्य का गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पण और शिष्य के लिए गुरु के सर्वस्व त्याग से गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाह होता है।अपने शिष्य के सर्वांगीण विकास के लिए शिष्य को शिक्षा के साथ जो उत्तम संस्कार प्रदान करते हैं वे जीवन भर उसके काम आते हैं। गुरु से प्राप्त शिक्षा और संस्कार शिष्य की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। गुरु की महिमा को शब्दों की सीमा में बांधना असंभव है।
सात समुंद की मसि करूं लेखनि सब बनराइ,
धरती सब कागद करूं गुरु गुण लिखा न जाइ।
गुरु की महिमा अपार है। अगर सातों समुद्रों के जल की स्याही बना ली जाए,वन की सभी टहनियों की कलम बना ली जाए और सारी धरती को कागज का रूप दे दिया जाए तब भी गुरु की महिमा का बखान करना संभव नहीं है ।कबीर दास कहते हैं कि
कबिरा ते नर अंध हैं गुरु को कहते और,
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।
अर्थात अगर ईश्वर रूठ जाए तो आप गुरु की शरण में जाकर अपनी भूल सुधार सकते हैं लेकिन अगर गुरु रूठ जाएं तो आपको कहीं शरण नहीं मिल सकती। गुरु को नाराज़ करने के बाद मनुष्य जिस मुश्किल का सामना करने के लिए विवश हो जाता है उससे बाहर निकलने का रास्ता और कोई नहीं बता सकता।

गुरु पूर्णिमा अपने उस गुरु के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का दिन है जिसके ऋण से कोई शिष्य कभी मुक्त नहीं हो सकता। शिष्य अपने जीवन में जो सम्मान, शोहरत और यश अर्जित करता है उसमें सबसे बड़ी भूमिका गुरु की दी हुई शिक्षा और उत्तम संस्कारों की होती है । गुरु अपने शिष्य से इसके बदले में कोई अपेक्षा नहीं रखते। वे केवल इतना चाहते हैं कि उनका शिष्य कभी उनके बताए रास्ते से विमुख न हो। शिष्य जब जीवन में सफलता के शिखर की ऊंचाईयों को स्पर्श करता है तो गुरु से अधिक प्रसन्नता किसी को नहीं होती। शिष्य की सफलता से गुरु को यह अनुभूति होती है कि उसकी दी शिक्षा सार्थक हो गई। गुरु और शिष्य का संबंध आजीवन बना रहता है। जो शिष्य यह मान लेता है कि अब वह जिस मुकाम पर पहुंच गया है वहां उसे गुरु की परोक्ष आवश्यकता भी नहीं है वहीं से उसका पराभव प्रारंभ हो जाता है । सफलता के शिखर पर पहुंचने के बाद अगर शिष्य के अंदर अहंकार जागृत हो जाए तो गुरु उसके अहंकार को तोड़ कर उसे वास्तविक धरातल पर ले आता है ताकि वह अहंकार शिष्य की उन्नति के मार्ग में बाधा न बन सके। इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है।
इसलिए गुरु अपने शिष्य को समय समय पर सचेत भी करते हैं और इस प्रक्रिया में उन्हें अपने प्रतिभाशाली शिष्य के प्रति कठोर भी होना पड़ता है। गुरु की इस कठोरता से शिष्य के व्यक्तित्व और कृतित्व में और निखार आता है।

गुरु पूर्णिमा के पुनीत पर्व पर सारे देश में श्रद्धा पूर्वक गुरु वंदना करके और शिष्य अपने गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। देश में विभिन्न स्थानों इस आयोजन के अलग-अलग स्वरूप देखने को मिलते हैं। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और राष्ट्र के परम वैभव के लिए समर्पित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भगवा ध्वज को गुरु मान कर उसका वंदन किया जाता है। भगवा ध्वज को त्याग और समर्पण का प्रतीक माना जाता है। गुरु शिष्य परंपरा में भी त्याग और समर्पण की प्रधानता प्रदान की गई है।


नोट - लेखक राजनैतिक विश्लेषक है।

 


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