विजय कुमार जैन राघौगढ़ (गुना)

बात उत्तम ब्रहृचर्य की है। विश्व के समस्त धर्मो में ब्रहृचर्य को एक पावन और पवित्र धर्म माना गया है। यह समस्त साधनाओं का मूल आधार है। आत्मा की उपलब्धियों के लिये किया जाने वाला आचरण ब्रहृचर्य है। आत्मोपलब्धि ही परम ब्रह्म की उपलब्धि है। जो व्यक्ति आत्मा के जितना दूर है वह उतना ही बड़ा भ्रमचारी है। हमें ब्रह्मचारी और भ्रमचारी में अन्तर करके चलना है। ब्रह्मचारी का अर्थ है ब्रह्म (ब्रह्ममय आचरण करने वाला) में जीने वाला और भ्रमचारी का अर्थ है भ्रम में जीने वाला ।

काम और भोग ही हमे हमारी आत्मा से बाहर लाते है। कामनाओं से ग्रसित व्यक्ति का चित्त सारी दुनिया में डोलता रहा हैं काम और भोग ही हमे भटकाने वाले तत्व है। जिसके अन्दर जितनी अधिक कामनायें है वह आत्मा से उतना ही अधिक दूर है, तथा जो कामनाओं से जितना अधिक मुक्त है। वह आत्मा से उतना ही अधिक नजदीक हे। कामनायें हमें वहिर्मुखी बनाती है और कामना मुक्त अन्तर्मुखता का आधार है। अन्तर्मुखी आत्मा में ही ब्रह्म का तेज प्रकाशित होता है उसके लिये काम-भोग की आकांक्षाओं से ऊपर उठना अनिवार्य है।

आकांक्षाओं/वासनाओं की आशा हमे प्रभावित करती है। और हमारा अनुभव पराजित हो जाता है। वासना/आकांक्षा/तृष्णा कोई कितना ही पूर्ण करना चाहे, वह पूरी नहीें हो सकतीं वह तो सुरसा की तरह है, जिसका मुख निरंतर फैलता ही जाता है। वासना ऐसे कलश की भांति है जो पेंदी विहीन है। पेंदी विहीन कलश को कोई कितना भी भरना चाहे वह रिक्त ही रहेगा। उसे भरने का प्रयास करना हमारी नादानी है।

देहानुराग ओर आत्मानुराग में बहुत अन्तर है। इन दोनों में उतना ही अन्तर है जितना कि वासना और वात्सल्य में । देह पर आधारित प्रेम वासनामय होता है, आत्मा पर आधारित प्रेम वात्सल्यमय होता है। एक में वासना का विकार है। तो दूसरे में ब्रह्मचर्य की शोभा । विवाह के बाद गृहस्थ का काम एक पर सीमित हो जाता है। अपने पति अथवा पत्नी की अतिरिक्त अन्य सभी के प्रति ब्रह्मचर्य का भाव । इसीलिये गृहस्थ को ब्रह्मचारी कहा गया है। विवाह व्यवस्था सामाजिक मर्यादा और संबंधों की पवित्रता स्थापित रखने के उद्देश्य से की गयी है। जैन धर्म में विवाह करके परिवार बसाने की तो अनुमति दी गयी है, पर पशुओं की तरह स्वेच्छिक जीवन की अनुमति नहीं है। जो लोग विवाह भी नहीं करते और ब्रह्मचर्य भी नहीं अपनाते, वे सामाजिक मर्यादाओं का उल्लंघन करते हैं। ऐसे व्यक्ति न धार्मिक है न सदाचारी ।

कुरल काव्य में कहा गया है- मनुष्य चाहे कितना भी श्रेष्ठ क्यों न हो, पर उसकी श्रेष्ठता किस काम की, जबकि वह व्यभिचारजन्य लज्जा का कुछ भी विचार न कर परस्त्रीगमन करता है। साधक अपनी साधना मे तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि वह अपने मन के विकल्पों को जीत न ले। रूप को देखकर भी जिसके मन में रूप के प्रति आसक्ति उत्पन्न नहीें होती वही सच्चा साधक है। काम वासना पर विजय पाये बिना अपनी साधना के अभीष्ट को नहीं पाया जा सकता । और तो क्या भ्रष्ट जीवन जीने की अपेक्षा मरण ही श्रेयस्कर है। ‘‘व्यभिभारी व्यक्ति को इन चार बातों से कभी भी छुटकारा नहीं मिलता घ्रणा, पाप, भ्रम और कलंक‘‘।

 

नोट- लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष हैं।


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