विजय कुमार जैन राघौगढ़ (गुना)


जो जैसा है वैसा ही प्रकट करना नहीं चाहता। भीतर कुछ है, बाहर कुछ और दिखता है। व्यक्ति के जीवन में दोहरापन दिखाई पड़ता है, यह दोहरापन ही मायाचारी हैं यह ही निकृति है, कुटिलता है। इस कुटिलता के अभाव का नाम ही आर्जव धर्म है। उत्तम आर्जव का स्वरूप बताते हुए भगवती आराधना में कहा है - जो मन में हो उसे ही वाणी और व्यवहार में उतारना, मन-वन-काय से एक होना आर्जव धर्म है। इसके विपरीत कुटिलता अधर्म है। सरलता स्वर्ग का सोपान है तो कुटिलता नरक का पथ।

जीवन के इस दोहरेपन को दूर करने का प्रयास करना चाहिये क्योंकि बहुरूपियापन व्यक्ति को कहीं का नहीं रहने देता। ऐसे व्यक्ति बहुत स्वार्थी होते हैं, अवसर को देखते ही अपना रूप बदल लेते हैं। ऐसे लोगों पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि ये कब कैसा रूख अपना लें कहां जा नहीं सकता।

मन, वचन और काय में एकरूपता महापुरूषों का लक्षण है तथा मन, वचन और काय की भिन्नता दुरात्मा की पहचान है। मन कुछ, वचन में कुछ, प्रकट में कुछ, ये कुटिलता दोहरापन है। इस दोहरेपन में खत्म करके मन, वचन, वाणी और व्यवहार में एकरूपता लाकर सरल बनने की आवश्यकता है। सरल बनने की बात बड़ी सरलता से सुनी और कहीं जा सकती है। सरलता सुनने समझने में जितनी सरल प्रतीत होती है, जीवन में उतारने में उतनी सरल नहीं है। कहा है सरल बन जाना कदाचित सरल है, पर सरल हो पाना बड़ा जटिल है। कुछ लोग सरल बनते हैं, कुछ दिखते है और कुछ वास्तव में सरल होते हैं। प्रयत्नपूर्वक स्वयं को सरल दिखाने वाले लोग इस संसार में बहुत है। किन्तु वास्तविक रूप में सरल हो जाने वाले लोग बहुत कम है। सरल वह है जिसके मन में सत्य के प्रति निष्ठा हो, जो सच्चाई के पथ पर चलने हेतु संकल्पित हो, जो ईमानदारी का जीवन जीने का आदी हो।

शास्त्रों में चार प्रकार के लोग बताये गये हैं - (1) बाहर से सरल, भीतर से सरल प्रथम प्रकार के लोग अत्यंत सरल होते हैं। (2) बाहर से कुटिल भीतर से सरल दूसरे प्रकार के वे लोग है जो बाहर से कठोर और भीतर से सरल होते हैं। (3) बाहर से सरल और भीतर से कुटिल तीसरे प्रकार के मनुष्य वे होते हैं जो ऊपर से सरल दिखते है पर होते नहीं है। (4) बाहर भीतर से कुटिल चौथे प्रकार के व्यक्ति बाहर-भीतर से कुटिल होते हैं। कुटिलता उनकी नस-नस में भरी होती हैं वे कुटिलता की प्रति मूर्ति होते हैं। उनका जीवन बड़ा गूढ़ होता है। ऐसे लोग मरते-मरते भी कुटिलता नहीं छोड़ते। जैसे मदिरा का पात्र आग से तपाने पर भी शुद्ध नहीं होता, वैसे ही कुटिल हृदय व्यक्ति सौ बार तीर्थ स्नान करके भी शुद्ध नहीं होता। अतएव कुटिलता, मायाचारी और कपट पूर्ण व्यवहार से बचने का प्रयत्न करें। सरलता और सदाचार को अपने जीवन का आदर्श बनाकर चलें। तभी आत्म कल्याण होगा। यही उत्तम आर्जव है।

 


नोट:-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष है।


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