विजय कुमार जैन राघौगढ़ (गुना)


जीवन के विकास के लिये अहं का विसर्जन अनिवार्य है। मार्दव धर्म हमें यही सन्देश देता है। मार्दव धर्म का अर्थ है - अहंकार का अभाव, विनम्रता का सद्भाव। आखिर ये अहंकार है क्या ? ‘‘अहं करोमीति अहंकारः‘‘ मैं कुछ करता हूँ। यह भाव ही अहंकार है। आज हर व्यक्ति अपने आपको जगत का कर्ता मानकर चलता है। वह कर्तव्य, भोक्तृत्व और स्वामित्व की बुद्धि में जीता है। इस बुद्धि में ग्रसित होने के कारण वह जगत के सारे कार्यों को अपने ऊपर आरोपित कर लेता है। मेरे बिना कुछ हो ही नहीं सकता। बस यही अहंकार है।

एक बार एक बैलगाड़ी चल रही थी उसके नीचे कुत्ता चल रहा था, बैलगाड़ी को बैल खींच रहे थे, मगर कुत्ता कह रहा था कि बैलगाड़ी को मैं ही खींच रहा हूॅं। कुत्ता अपने अभिमान में फूल रहा था। अहंकारी व्यक्ति की कुछ ऐसी ही प्रकृति होती हैं। मैं ही सबको चलाता हूॅं। मेरे बिना कुछ हो ही नहीं सकता। व्यक्ति सामान्य बनकर जीवन यापन पसंद नहीं करता, वह कुछ विशेष चाहता है। यही भाव अंहकार को जन्म देता है। आज आदमी अपने आपको मैं तक सीमित नहीं रखता। वह स्वयं को विशेषणों के साथ प्रस्तुत करता हैं। मैं धनी हूॅं, मैं ज्ञानी हूँ, मैं नेता हूॅं, मैं मंत्री हूॅं, मैं अधिकारी हूॅं, मेरी कार हैं, मेरा बंगला है, मेरी फेक्ट्री है, ऐश्वर्य है, पद है, प्रतिष्ठा है। सन्त कहते हैं, यह मैं और मेरापन ही जिसे अध्यात्म की भाषा में अहंकार और ममकार कहते हैं, जीवन में दुखों का सबसे बड़ा कारण है। आज हर आदमी अपने अहं की पुष्टि में पागल है। वह चाहता है कि दुनिया का सबसे बड़ा आदमी बन जाऊॅं।

सन्त कहते हैं बड़ा आदमी बनकर क्या करोगें ? भले आदमी बन जाओ तुम्हारा उद्धार हो जायेगा। आज जो बड़ा आदमी बनने की कोशिश में है, वह किसी पद और प्रतिष्ठा को पाने में लगा है। धन, वैभव, पद और प्रतिष्ठा ही आदमी के बड़ा होने के प्रतिमान बनकर रह गये हैं। जिसके पास जितना अधिक धन, वैभव, पद और प्रतिष्ठा हो दुनिया में वह उतना ही बड़ा आदमी माना जाता है। दुनिया की नजरों में वह भले ही बड़ा आदमी हो पर परमार्थतः नहीं। व्यक्ति को अहंकार या मद अनेक प्रकार का होता है। कुल/जाति मद, रूप मद, ऐश्वर्य मद, बल मद, ज्ञान मद, तप मद, धन मद में मदमस्तक होकर व्यक्ति सब कुछ स्वयं को ही मान रहा है। विश्व विजेता सिकन्दर जब इस दुनिया से विदा हुआ तो उसने पहले ही कह दिया था कि जब मेरा जनाजा निकले तो मेरे दोनों हाथ बाहर रखना ताकि यह दुनिया देख ले कि मैं खाली हाथ जा रहा हूँ। मैं-मैं की रटना लगाने वाले अनेक लोग इस दुनिया से चले गये, उसके बाद भी किसी का काम नहीं रूका। संसार के जितने भी क्रियाकलाप है, सब अपने-अपने नियमों के अनुरूप होते रहते हैं। किसी के रोके कुछ रूकता नहीं और किसी के किये कुछ होता नहीं। हम एक-दूसरे के लिये निमित्त हो सकते हैं, पर कर्ता नहीं। अहंकार को त्यागने के लिये विश्व व्यवस्था में अपनी भूमिका को समझने की आवश्यकता है। जगत में जो कुछ भी घटित होता है, उसमें पूरी प्रकृति की भागीदारी है। हम तो उसके एक घटक मात्र है। घटक तो घटक होता है, कार्य का जनक नहीं। प्रत्येक घटक समान है इस समानता की प्रतीति ही ‘‘मार्दव धर्म‘‘ है।

वस्तुतः धन, वैभव, पद-प्रतिष्ठा आदि जितने भी बाह्य संयोग है वे सभी नश्वर। क्षण-क्षयी आदि उन पर अहंकार करना हमारी अज्ञानता हैं बाह्य संयोगों पर अहंकार करने की अपेक्षा उन्हें क्षणिक जानकर आत्मा के शाश्वत स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। आत्मसत्ता का भान होते ही अहंकार विगलित होने लगता है। मार्दव धर्म का मात्र यही संदेश है कि हम बाह्य संयोगों के प्रति बढ़ते हुए अभिमान को नष्ट करें, आत्मा के स्वरूप को समझें और जीवन में विनम्रता को विकसित करें।


नोट:-लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष है।

 


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