विजय कुमार जैन राघौगढ़ (गुना)

बाहर के पत्थर फेंकने से काम नहीं चलेगा, बाहर के बोझ के साथ साथ भीतरी बोझ भी उतारना जरूरी है। जव तक चित्त पर काम, क्रोध, लोभ और मोह के पत्थरों का बोझ है, तब तक चेतना का ऊध्र्वारोहण संभव नहीं है। चेतना के ऊध्र्वारोहण के लिये बाहर और भीतर से हल्का होना जरूरी है इसी हल्केपन का नाम है- आकिन्चन्य । न किन्चनम् अकिनचनम् भावत आकिन्चन्यम्। मेरा कुछ भी नहीं है। इस प्रतीति का नाम आकिन्चन्य है।

आकिन्चन्य धर्म का स्वरूप निर्दिष्ट करते हुए आचार्य अकलंक देव ने लिखा है अध्यात्म की साधना के लिये ममत्व का त्याग अनिवार्य है। क्योंकि ममता ही दुख की खान है। हमारे मन में पलने वाली ममता हमे बहिर्मुखी बनाती हैं वहिर्मुखता दुख का मूल कारण है। वह जीव ममता के कारण बॅधता है। और ममता को जीतने से मुक्त होता है अतः सर्वप्रथम हमे निर्ममत्व होने का प्रयत्न करना चाहिये । जिस दिन यह बोध जग जायेगा कि जहाँ जी रहा हूॅ वह मेरा नहीं है, जिनके बीच जी रहा हूँ वे मेरे नहीें हैं। उसी क्षण आकिन्चन्य की प्रतीति हो जायेगी।

शरीर के साथ-साथ मनुष्य को सम्पत्ति के प्रति भी बड़ा प्रबल मोह होता है सम्पत्ति शाश्वत नहीं है। जिस सम्पत्ति के पीछे मनुष्य स्वयं को विपत्ति में डालता है, रात-दिन जिसकी चिन्ता में अनुरक्त रहता है, वास्तव में वह उसकी है ही कहाँ ? आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं मैं आकिन्चन्य हूँ यह प्रतीति कर लो, तीन लोक के अधिपति बन जाओगे । सच में जीवन धन से बडा कोई धन नहीे है। जगत में सबसे मूल्यवान जीवन है। जीवन के रहते ही जगत के पदार्थो का मूल्य है। जीवन के विनष्ट हो जाने के बाद उनका क्या मूल्य है? जो अपनी आत्मनिधि को जान लेता है, जगत के जड़ वैभव से उसे लगाव नहीे रहता । एकत्व भावना में कहा है संसार के सारे संबंध स्वार्थ पर टिके हैं। यथार्थ में कोई किसी का नहीे है। एकत्व की प्रतीति ही आकिन्चन्यता की उपलब्धि है। वस्तुतः संसार में कोई किसी का नहीं है। संसार का हर व्यक्ति अकेला है। यहाँ की हर वस्तु और हर व्यक्ति अनाथ हैै कोई किसी का नाथ और साथ नहीं है। कोई चाहे भी तो किसी का साथ नही है। कोई चाहे भी तो किसी का साथ नहीं दे सकता । कोई व्यक्ति कितना भी आत्मीय क्यों न हो, यदि उसके सिर में दर्द हो तो वह उसके दर्द के प्रति सहानुभूति तो प्रकट कर सकता है, पर उसके दर्द को बाॅट नहीं सकता । संसार के प्रत्येक प्राणी को अपने-अपने कर्मो के अनुसार सुख-दुख भोगना पड़ता है।

संवेग और वैराग्य भावों की वृद्धि के लिये संसार और शरीर की नश्वरता और भोगों की असारता का चिन्तन करते रहो। ममत्व अपने आप क्षीण होगा। एक बार संसार की असारता समझ लेने पर फिर वह अपनी और खींच नहीं सकता । ममत्व और आसक्ति से बचना चाहते है तो सदैव इन पंक्तियेां का ध्यान दें।

संसार शोकमय है, जीवन भोगमय है, काया रोगमय है, संबंध वियोगमय है, साधना उपयोगमय है।

 

नोट- लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष हैं।


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