डी.डी.शाक्यवार

सूर्य की नौ संतानों में से शनि भी एक है। इनका जन्म सूर्य की द्वितीय पत्नि छाया से हुआ था। इसलिये शनि को छायासुत भी कहते है। छाया से ही तपती व विष्टि नामक दो कन्याओं की भी प्राप्ति सूर्य को हुई थी। शनिदेव का स्वभाव बाल्य काल से ही नटखट था। सभी भाई, बहनों में वे अधिक बलशाली थे। शनि की अपनी भाई, बहनों से नहीं बनी। कथा है कि सूर्य देव ने शनि सहित सभी के कार्य का बटवारा कर दिया और कहा कि तुम सभी अपना दायित्व संभालों। लेकिन शनि इस कार्य एवं बटवारे से प्रसन्न नहीं हुये। कथा यहां तक कहती है, कि शनि द्वारा अपने बंधु-बांधवों को नष्ट कर दिया गया था। केवल वह बृहस्पति को नष्ट नहीं कर सके। बृहस्पति का दूसरा नाम जीव है, अर्थात् जीवन।

उक्त कथा यह प्रतिपादित करती है कि मृत्यु (शनि) जितना सत्य है, उतनी ही सत्य जीवन (बृहस्पति)। शनि का ध्येय एक छत्र राज्य करना था। परन्तु बृहस्पति के जीवति रहने के कारण उनका यह मन्तव्य पूर्ण नहीं हो सका। इस कारण शनिदेव ने ब्रह्मा से तपस्या कर वरदान मांग लिया था।

ब्रह्मा से वरदान प्राप्त कर वे स्वभाव से उच्छूंखल हो चुके थे। यहां तक कि अपने पिता सूर्य की आज्ञा का उल्लंघन करने लगे, तब सूर्य ने शिव की आराधना कर अपनी व्यथा उनको बताई। शिव ने सूर्य को आश्वस्त किया और अपने गणों को शनि से युद्ध करने के लिये भेज दिया और पीछे-पीछे स्वयं भी चल पड़े। शनि और शिव के गणों में युद्ध हुआ। अब शिव और शनि आमने-सामने थे। दोंनो के दिव्य शक्ति से एक तेज निकला, और वह तेज शनि के आसपास फैल गया। जिससे शनि मुच्छित हो गये। इधर सूर्य देव शनि की इस दशा को देखकर क्रन्दन करने लगे। सूर्य देव की दयनीय स्थिति देखकर शिव ने शनि की मुर्च्छा दूर कर दी। तब शनि उठ खड़े हुये। उन्होंने शिव से क्षमा मांगी। शिव प्रसन्न होकर उन्हें अपना शिष्य बना लिया और दुष्ट जीवों को दण्ड देने का दायित्व सौंपा।

शिव की आज्ञानुसार शनि आज भी जहां धर्म प्रवत्ति लोगों के लिये रक्षक है, और वे ही अधार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को कठोर दण्ड देते है। इसलिये शनि की महादशा में मनुष्यों को धर्म से विमुख नहीं होना चाहिये। ब्रह्मा वैवर्त पुराण में उल्लेख है कि शनि की क्रूर दृष्टि का कारण उसकी ही पत्नी व चित्ररथ गंधर्व की पुत्री का शाप है। एक कथा है कि शनि श्रीकृष्ण के भक्त थे और वे कृष्ण के ध्यान में लीन रहा करते थे। सूर्य ने उनकी यह स्थिति देखकर उनका विवाह चित्ररथ की कन्या से कर दिया। विवाह सम्पन्न हो गया। कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात् शनि पुनः तपस्या में लीन हो गये। शनि पत्नि न केवल सुंदर भी, बल्कि गुण सम्पन्न भी थी।

एक बार वह शनि के पास पुत्र प्राप्ति की कामना से गई। शनि पत्नि वहीं बैठी रहीं और शनि तपस्या में लीन थे। अपनी मनोकामना पूर्ण न होने पर शनि पत्नि ने आवेश में आकर शाप दे दिया और कहा कि तुम जिस पर भी दृष्टिपात करोगे, उसका विनाश होगा। अकस्मात शनि तंद्रा टूटी और सम्मुख खड़ी अपनी पत्नि को उन्होंने मनाया। चित्ररथ की पुत्री ने शाप दे दिया। परंतु उसका प्रतिकार करना उसको नहीं आता था। अतः वह बाद में पश्चाताप करने लगी।

तब से आज तक शनिदेव नीचे दृष्टि किये रहते है, क्योंकि वह नहीं चाहते कि किसी का अनिष्ट हो।
पैराणिक कथा अनुसार हनुमान जी ने लंका में आग लगा दी। जब हनुमान जी को किसी की सिसकने की आवाज सुनाई दी। करूणा पूर्ण रूदन सुनकर हनुमान जी ने पूछा-तुम कौन हो? शनि ने कहा भगवान मैं शनि हूं और अकाल मृत्यु का ग्रास हो रहा हूं। मुझे बचाओ। हनुमान जी तक कैद में बंधे हुये शनि के बंधन खोल दिये। तब शनि देव ने कहा कि हे महावीर मैं आपका सदा ऋणि रहूंगा। तब हनुमान जी ने उन्हे दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे आराध्य के दर्शन हुये गदगद होकर हनुमान रूपधारी शंकर की वे के कर्ता हैं आप तलाक और संहारक है। आपकी जय-जय कार हो, आप देवज्ञों के लिये अदृश्य हैं, आपको नमस्कार है। आप भक्त वत्सल है। आपकी कीर्ति शेषनाग और शारदा भी करने मैं असमर्थ है। आप भक्त वत्सल है। भक्तों के मनोरथ को जानते है। आप दैत्य विनाशक है तथा दया और करूणा करने में अग्रणी है। आपको नमस्कार है। आप अज्ञान को दूर करने वाले तथा भक्तों को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले है। आप तत्वों के श्रेष्ठ तथा भक्तों को अभय देने वाले है।

इस प्रकार विनय करते हुये शनि देवजी ने हनुमान के चरण पकड़ लिये और उनको प्रेमाश्रु बहने लगे। हे नाथ आपके भक्तों पर मेरा प्रकोप कभी नहीं रहेगा। जो भी मनुष्य इस हनुमान और शनिदेव के वार्तालाप का स्मरण करते है। उन्हें शनि की साड़े साती, ढय्या व अन्य व्याधि प्रकोप नहीं होता। इसके अतिरिक्त रूद्रावतार हनुमान जी के सहस्त्रनाम का पाठ नियमित सात शनिवार तक करने से भी शनि की साढ़े साती का प्रभाव नहीं होता।


इस खबर को शेयर करें


Comments