विजय कुमार जैन राघौगढ़ (गुना)
नदी को सागर तक की यात्रा के लिये किनारों का बंधन स्वीकार करना अनिवार्य है। इसी बंधन का नाम संयम है। जीवन की धारा को एक निश्चित दिशा और नियंत्रित वेग में प्रवाहित करने का नाम है संयम । अपने मन और इन्द्रियों को नियंत्रित रखकर जीवन को आगे बढ़ाने का नाम है संयम । संयमपूर्ण जीवन का मतलब है स्वस्थ्य, व्यवस्थित और संतुलित जीवन शैली ।
संयम के अभाव में जीवन का कोई उपयोग नहीं। जीवन की सार्थकता संयम में है। टिमटिमाते दीपक के प्रकाश में हम कुछ पढ़ नहीं सकते । उसका प्रकाश सघन नहीं होता । कभी- कभी हमारी श्वासों से भी उसके बुझने का भय रहता है। लेकिन उसी दीपक पर यदि कोई चिमनी रख दी जाये तो उसकी आभा निखर उठती है। उसकी सघन आशा में पर्याप्त प्रकाश पा सकते हैं। संयम की आराधना ही जीवन की श्रेष्ठ साधना है। अपने मन और इंन्द्रियों पर नियंत्रण रखना संयम है। अपने भटकते हुए मन और विपथगामी इन्द्रियों को रोके बिना जीवन का उद्धार संभव नहीं है। इसलिये गीता में श्री कृष्ण ने कहा है ‘‘असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे वचः‘‘ असंयत आत्मा के लिये योग की उपलब्धि असंभव है। मन और इन्द्रियाँ मनुष्य की दो मौलिक शक्तियाँ हैं। पूरे प्राणी जगत में जितना सक्षम मन और जितनी समर्थ इन्द्रियाँ मनुष्य को प्राप्त है, उतनी संसार के किसी भी प्राणी को नहीं ।
आज मनुष्य का जीवन पूरी तरह पराधीन हो गया है। यह पराधीनता ही दुख का मूल कारण है। क्योंकि इन्द्रिय चेतना एक मृग मरीचिका है जिसमें मनुष्य को भटकन प्यास और अतृप्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता । इन्द्रिय चेतना हमारी आत्मा को भटकाती है। मनुष्य के मन में इन्द्रिय विषयों के प्रति आसक्ति होती है। गीता में कहा है इन्द्रिय विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले भोग विषयी पुरूष को भले ही सुख रूप प्रतीत हों, पर यथार्थतः वे दुख के जनक हैं। आदि अन्त वाले नाशवान अनित्य है। है अर्जुन । बुद्धिमान दूरदर्शी मनुष्य इसमें रमण नहीं करता, उनमें आसक्त नहीं होता ।
इन्द्रियों को अपने विषयों से हटाकर अपने अपने गोलक में स्थापित कर देना ही वास्तविक इंन्द्रिय विजय है। इन्द्रिय विजय का मतलब इन्द्रियों को नष्ट करना नहीं है। इन्द्रियों के साथ तोड-फोड करना कदापि हितकर नहीं है। इंन्द्रिय विजय का सच्चा अर्थ विषयों की ओर भटक रही बहिर्मुखी इन्द्रियों को अपनी और मोड़कर अपनी सेविका बनाकर उनका सद्उपयोग करना है। जिसने अपने मन को जीत लिया है वही जगत को जीत सकता हें मनोविजय ही जगत की विजय है। मनोविजय के अभाव में मनुष्य चाहे जितना भी साधन सम्पन्न क्यों न हो, वह सक्षम नहीं हो सकता । वर्तमान में मानव की शक्ति विस्तीर्ण होती जा रहीं है, लेकिन वह स्वयं शक्तिहीन होता जा रहा है। आत्म संयम की रक्षा अपने खजाने के समान करना चाहिये। क्योंकि उससे बढ़कर जीवन में और कोई निधि नही है।
मन की वृतियों को दबाने मात्र से मन की जय नहीं होगी । ऐसा करने से बाहर से ये दिखाई देता है कि उन पर विजय हो गई पर अन्दर वे बनी रहती हे। और निमित्त मिलते ही पुनः उभर आती है। अतः मन को नियंत्रित करने का यही सही तरीका नहीं माना जा सकता । उसका सही तरीका प्रवाह परिवर्तन । अर्थात उन शक्तियों को अपने आप मे रहीं हुई वृतियों/प्रवृतियों के साथ परिचय करना उनकी उपयोगिता जानना और फिर उनसे मैत्री करके उनके प्रवाह को मोडना, उन्हे अपना सहयोगी बना लेना यही मनोविजय अथवा उत्तम संयम है।
नोट- लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष है।
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