विजय कुमार जैन राघौगढ़ (गुना)

भोजन करें और मल विसर्जन न हो तो पीड़ा होगी श्वांस लें और वाहर न निकले तो घुटन होगी। भोजन किया है तो मल विसर्जन भी अनिवार्य है। अर्जन और विसर्जन, ग्रहण और त्याग प्रकृति का शाश्वत नियम है जहाँ ग्रहण है वहाँ त्याग अनिवार्य है। पूरी प्रकृति ग्रहण और त्याग का उदाहरण है बादल समुद्र से जल सोखते हैं, संग्रह होता है, अपने पास नहीं रखते, बरसा देते हैं यह त्याग है।

त्याग धर्म की शास्त्रों में दो प्रकार की व्याख्या मिलती है। मुनियों की अपेक्षा परिग्रह की निवृति को त्याग कहा गया है। तथा ग्रहस्थों की अपेक्षा त्याग का अर्थ दान लिया गया है। मुनि सर्वस्व के त्यागी होते हैं वे धन परिग्रह की आसक्ति से रहित अपरिग्रही जीवन जीते हैं। ग्रहस्थ के लिये सर्वस्व का त्याग संभव नहीं है, वह उसके लिये अपनी शक्ति और परिस्थिति के अनुसार दान देने की प्रेरणा दी गयी है। दान का स्वरूप बताते हुए आचार्य उमा स्वामी ने कहा है ‘‘अनुग्रहार्थ स्वस्याति सर्गो दानम्‘‘ स्व पर के अनुग्रह के लिये अपने धन का त्याग करना दान है। मनुष्य परिश्रम पूर्वक धन अर्जन करता है। अतः उसके प्रति लगाव भी स्वाभाविक है वह उसके संरक्षण ओर संवर्धन का भी प्रयत्न करता है। धन का अर्जन बुरा नहीं है। परन्तु अर्जन के साथ-साथ उसका उपयोग भी होना चाहिये । सम्पत्ति शाश्वत नहीं है। कोई चाहे जितना भी धन का संग्रह करे सुई की नोंक बराबर सम्पत्ति भी उसके साथ नहीं जाती । जिसके पीछे मनुष्य रात की नींद और दिन का चैन खोता है। वह उसके काम नहीं आता है

अंग्रेजी विचारक ने ठीक कहा है। धन उसका नहीं है जिसके पास वह है। अपितु उसका ही धन सार्थक होता है जो उसका सदुपयोग करता है। अर्जित धन का उपयोग और बचे धन का दान ही धन का सच्चा उपयोग है। दान से जीवन का कल्याण होता है। धन ही जिनके जीवन का अन्तिम साध्य है वे जीवन पर्यन्त धन जोड़ते रहते हैं और अन्त में सब कुछ यहीं छोड़कर चले जाते हैं। व्यक्ति चाहे कितना भी सम्पन्न क्यों न हो वह यदि अपनी सम्पत्ति का सदुपयोग करना नहीं जानता तो उससे बडा अभागा इस संसार में कोई दूसरा नहीं है कृपणता कंगाली की पहचान है। कुरल काव्य में लिखा है ‘‘परोपकारी के हाथ का धन उस वृक्ष के समान है जो औषधियों की सामग्री देता है और सदा हरा बना रहता है धन की सम्पन्नता की सार्थकता दीन दुखियेां की सेवा करने में है सच्चा धर्मात्मा पुरूष अपनी सम्पत्ति का सदैव सदुपयोग करता है। वह दया से प्रेरित होकर दूसरों की सेवा और सहायता करता हैं जिसका मन जितना उदार होता है उसका भाग्य उतना ही ऊँचा उठता है आज के बड़े-बड़े धनपति रात-दिन परिश्रम करके धन जोड़ते रहते हैं, सही अर्थो मे वे लक्ष्मीपति नहीं है। वे लक्ष्मी के दास सेवक हैं जो व्यक्ति धन को अपने सिर पर बैठाये रखता है, उसका जीवन जड़ता क्रान्त हो जाता है धन की आसक्ति मनुष्य को अन्धा बना देती है उसका विवेक समाप्त हो जाता है इसीलिये लक्ष्मी की सवारी उल्लू को बनाया गया है।

जिनकी अपरिग्रह में आस्था है, तो अपरिग्रह को आदर्श मानकर चलते हैं। भामा शाह जैसे दानवीर जैन समाज के गौरव हैं जिन्होंने अपने राष्ट्र और समाज के उत्थान में, मानवता की सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया ।

 

नोट- लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष है।


इस खबर को शेयर करें


Comments