विजय कुमार जैन राघौगढ़ (गुना)

जिस तरह स्वर्ण पाषाण में स्वर्ण छिपा होता है, दूध के अन्दर घी समाविष्ट रहता है, तिल के अन्दर तेल व्याप्त होता है, उसी तरह इस देह में आत्मा विद्यमान है। उस आत्मा की अभिव्यक्ति ही परमात्मा की उपलब्धि है। यही धर्म साधना का मूल ध्येय है। स्वर्ण पाषाण को अग्नि में तपाया जाता है, तब उसकी कालिमा किहिमा गलकर पृथक होती है स्वर्ण का शुद्ध स्वरूप निखर उठता है। वह हमारे गले का हार बन जाता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तप अनुष्ठान करता है, उसकी आत्मा कुन्दन बन जाती है। दूध में घी व्याप्त है। उसकी उपलब्धि सहज नहीं है। घी निकालना है तो पूरी प्रक्रिया अपनानी पडेगी, दूध को जमाना उसका दही बनाना होगा। उस दही का मन्थन कर नवनीत निकालना होगा। नवनीत को जब अग्नि पर तपायेगे तब घी प्रकट होगा। अपने अन्दर छिपी भगवत्ता को भी हम इसी तरह प्रकट कर सकते हैं। आवश्यकता है उस शक्ति को पहचानने और तदनुकूल प्रयत्न की।

प्रत्येक प्राणी में अपार क्षमता है, उसकी अभिव्यक्ति तपस्या के बल पर होती है। मानव जीवन की सार्थकता अपनी आन्तरिक शक्तियों के विकास में है। आत्मशक्ति के विकास और आत्म उपलब्धि के लिये तप सशक्त माध्यम है। मानव जीवन में यह सहज साध्य है। मानव जीवन का सार तप साधना है। तप की व्याख्या भिन्न-भिन्न प्रकार से की गयी है। किसी ने वृत विशेष को तप माना है किसी ने वनवास कन्दमूल भक्षण अथवा सूर्य के आतप को तप माना है तो किसी ने देह और इन्द्रियों के दमन से ही तप की पूर्णता स्वीकार की हे। परन्तु जैन धर्म में तप का विशद अर्थ किया गया है और उसमें शरीर मन और आत्मा की शुद्धि करने वाले प्रयोगों को स्थान दिया गया है। जैन ग्रन्थों में बारह प्रकार का तप बताया है अनशनतप, अनोदरतप, रस परित्याग तप, विविक्त शय्यासन तप, वृति परिसंख्यान तप, काय क्लेश तप, अभ्यन्तर तप, प्रायश्चित तप, विनम तप, वैयावृत तप, स्वाध्याय तप, कायोत्सर्ग तप ।

इच्छाओं का निरोध ही तप का मूल उद्देश्य है। ऐहिक आकांक्षाओं से ऊपर उठकर सिर्फ कर्म क्षय के लिये किया गया पुरूषार्थ ही तप है। कर्मो का दहन अर्थात भस्मकर देने के कारण ही इसे तप कहते है। तप वही है जहाँ विषयों का निग्रह है। जो शरीर के लिये उपकारी है वह आत्मा का अपकारक है तथा जो आत्मा के लिये उपकारी है वह शरीर का अपकारक है। देह विनाशी है, आत्मा अविनाशी है। आत्मा की अमरता और शरीर की नश्वरता को जान जाने के कारण उसका नजरिया ही बदल जाता है। साधारण व्यक्ति को तपस्वी के तप में कष्ट दिखता है। पर तपस्वी योगी तो उस कष्ट की स्थिति में भी आनंद मग्न रहता है। कष्ट उसे लगता ही नहीं।

तपस्वी योगियों के दृष्टिकोण को रेखांकित करती है ये पंक्तियाँ -

आप हर मंजिल को मुश्किल समझते हैं, हर मुश्किल को मंजिल समझते हैं।

बडा फर्क है हमारे आपके नजरिये में,आप दिल को दर्द और हम दर्द को दिल समझते हैं।

 

 

नोट- लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार एवं भारतीय जैन मिलन के राष्ट्रीय वरिष्ठ उपाध्यक्ष है।


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